(फ्रंटपेज न्यूज) डेस्क
हिमाचल प्रदेश का बजट अब केवल योजनाओं और वादों तक सीमित नहीं रहा, बल्कि “कर्ज़” इस पहाड़ी राज्य की राजनीति का सबसे बड़ा मुद्दा बन गया है। पिछले 12 साल में तीन सरकारें आईं और गईं, लेकिन कर्ज़ का ग्राफ़ लगातार ऊपर ही चढ़ता रहा। सवाल यह है कि किस सरकार ने कितना कर्ज़ लिया और किन हालातों में?
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आंकड़ों की पड़ताल
वीरभद्र सरकार (2012–17): लगभग ₹29,500–32,000 करोड़ का लोन लिया। इस दौरान कोई बड़ी आपदा या वेतन आयोग जैसी अतिरिक्त वित्तीय ज़िम्मेदारी नहीं थी।
जयराम ठाकुर सरकार (2017–22): लगभग ₹28,744 करोड़ उधार लिया। दो साल कोविड-19 संकट से जूझते हुए भी चौथा वेतन आयोग लागू किया, एरियर की किस्तें दीं और विकास कार्यों को रोकने नहीं दिया।
सुखविंदर सूखू सरकार (दिसंबर 2022 से अब तक): ढाई साल में ₹30,000 करोड़ से अधिक का लोन लिया। कई रिपोर्ट्स इस आंकड़े को ₹38,000 करोड़ तक मानती हैं। इस बीच कर्मचारियों और पेंशनरों के भत्ते/कमीशन पर रोक, कई संस्थानों का बंद होना और चेयरमैन–वाइस चेयरमैन की नियुक्तियाँ चर्चा में रहीं।
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सिर्फ़ लोन ही नहीं, कुल कर्ज़ की तस्वीर
राज्य का कुल बकाया कर्ज़ 2025 में ₹1 लाख करोड़ के आसपास पहुँच गया है। आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक़ हिमाचल की Debt-to-GSDP अनुपात 40% के करीब है, जबकि आदर्श रूप से यह 20–25% से नीचे होना चाहिए।
क्यों बढ़ा कर्ज़?
1. वेतन, पेंशन और ब्याज: हिमाचल की आय का सबसे बड़ा हिस्सा इन्हीं मदों में खर्च होता है।
2. कोविड-19 संकट: टैक्स व जीएसटी से आय घटी, स्वास्थ्य व राहत खर्च बढ़ा।
3. पूँजीगत निवेश की कमी: उधारी का बड़ा हिस्सा उत्पादनकारी प्रोजेक्ट्स के बजाय राजस्व व्यय में खर्च हो गया।
4. केंद्र से ग्रांट व हिस्सेदारी में कमी: टैक्स-शेयर में उतार-चढ़ाव ने राज्य की नकदी स्थिति कमजोर की।
राजनीति का रंग
कांग्रेस बनाम भाजपा: कांग्रेस का आरोप है कि भाजपा राज में कर्ज़ और खर्च नियंत्रण बिगड़ा।
भाजपा का पलटवार: भाजपा कहती है कि मौजूदा कांग्रेस सरकार ने ढाई साल में ही “रिकॉर्ड” कर्ज़ लेकर राज्य को डुबो दिया।
जनता का सवाल: जनता जानना चाहती है कि जब कर्ज़ लगातार बढ़ रहा है, तो विकास कार्य और सुविधाएँ कहाँ तक पहुँचीं?
आगे का रास्ता
आर्थिक विशेषज्ञ मानते हैं कि केवल उधार पर चलना हिमाचल के लिए खतरनाक है।
आय बढ़ानी होगी: नए रेवेन्यू स्रोत (जैसे पर्यटन, हाइड्रो पावर,) मजबूत करना ज़रूरी।
खर्च का संतुलन: वेतन-पेंशन सुधार और पूँजी निवेश में प्राथमिकता देनी होगी।
कर्ज़ का उत्पादक उपयोग: उधारी को सिर्फ़ खर्च पूरा करने के बजाय नए प्रोजेक्ट्स में लगाना चाहिए।
पिछली तीनों सरकारों ने अपने-अपने कार्यकाल में कर्ज़ लिया—कभी सामान्य परिस्थितियों में, कभी महामारी जैसी आपदा में और कभी वित्तीय सुधार के नाम पर। लेकिन नतीजा एक ही रहा—हिमाचल पर कर्ज़ का पहाड़ और जनता पर सवालों का बोझ।




























