फ्रंटपेज न्यूज़ डेस्क
हिमालय, जिसे दुनिया की जलवायु का संतुलन कहा जाता है, आज एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है जहाँ राजनीति और तथाकथित विकास ने उसके अस्तित्व को ही खतरे में डाल दिया है। उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में सड़कें, सुरंगें और हैलीपैड बनते जा रहे हैं, लेकिन इनकी कीमत कौन चुका रहा है? पहाड़, जंगल, नदियां और यहाँ रहने वाली हजारों पीढ़ियों की आजीविका।
ड्रीम प्रोजेक्ट्स का कड़वा सच
राज्य सरकारें “आधुनिकता” की होड़ में एक के बाद एक महत्त्वाकांक्षी परियोजनाओं को मंजूरी देती जा रही हैं। ऑल वेदर रोड से लेकर चारधाम परियोजना तक, इनका उद्देश्य यातायात को सुगम बनाना बताया जाता है। लेकिन सवाल यह है कि क्या यह सुगमता हिमालय की स्थिरता से बड़ी है?
साल-दर-साल बारिश के दौरान भूस्खलन और सड़क धंसने की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। वैज्ञानिक चेतावनी दे रहे हैं कि अनियोजित कटाई और विस्फोटकों के अंधाधुंध इस्तेमाल ने पहाड़ों की जड़ों को कमजोर कर दिया है।
राजनीति के इरादे और पर्यावरण की अनदेखी
हर चुनाव से पहले नेताओं के भाषणों में “हर गांव तक सड़क”, “हर पहाड़ी पर हेलीपैड” जैसे वादे मुख्य होते हैं। मगर ये वादे शायद ही यह बताते हैं कि इन परियोजनाओं के लिए कितने पेड़ कटेंगे, कितने जलस्रोत सूखेंगे, कितने जानवरों का निवास खत्म होगा।
पिछले वर्षों में जब सुप्रीम कोर्ट ने इस दिशा में सख्त टिप्पणी की, तब कुछ समय के लिए सरकारें सतर्क हुईं, लेकिन जल्द ही पुरानी रफ्तार लौट आई। इस स्थिति में नियामक संस्थाओं की भूमिका भी अक्सर प्रतीकात्मक होकर रह जाती है।
समाज की खामोशी और मीडिया की सजावट
आम नागरिक अपनी रोजमर्रा की मुश्किलों में इतना उलझा है कि पर्यावरण का मुद्दा उसे “दूर का खतरा” लगता है। मीडिया में भी यह विषय अक्सर बस एक हेडलाइन बनकर ही रह जाता है। अगर कोई कार्यकर्ता या बुद्धिजीवी पर्यावरणीय नुकसान की बात करता है, तो उसे “विकास विरोधी” का तमगा मिल जाता है।
प्रकृति की सीमाओं से खिलवाड़
हिमालय में विकास की कोई भी परियोजना, चाहे कितनी भी ज़रूरी क्यों न लगे, उसके पीछे पारिस्थितिकी और भूगर्भीय अध्ययन की जिम्मेदारी निभाना जरूरी है। लेकिन असलियत यह है कि कई योजनाओं को छोटे-छोटे टुकड़ों में बांटकर पर्यावरणीय समीक्षा से बचा लिया जाता है। इसका नतीजा यह है कि आज पूरे क्षेत्र में असमान्य भूस्खलन, नदियों का रास्ता बदलना और बर्फबारी के पैटर्न में उलटफेर होने लगा है।
विकास की यह दौड़ किस ओर ले जाएगी?
यदि यही रफ्तार जारी रही, तो कुछ वर्षों बाद ये “सपनों की सड़कें” और “हेलीपैड” सिर्फ वीरान कंक्रीट के ढेर बन जाएंगे। पर्यटक आएंगे ही नहीं, क्योंकि वो स्थायी आपदा का खतरा मोल नहीं लेंगे। स्थानीय लोगों की रोजी-रोटी खत्म होगी और जलवायु संकट और भी गहरा जाएगा।
विकास जरूरी है, पर वह ऐसा होना चाहिए जो पहाड़ों की आत्मा को न रौंदे। योजनाओं में सतही आंसू और कागजी पर्यावरणीय शपथ नहीं, बल्कि दीर्घकालिक, वैज्ञानिक दृष्टिकोण और ईमानदारी चाहिए। हिमालय कोई प्रयोगशाला नहीं है, यह हमारी पृथ्वी का अभिन्न अंग है। इस चेतावनी को जितनी जल्दी समझ लिया जाए, उतना ही बेहतर होगा।




























